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जन्मदिन विशेष: अटल बिहारी वाजपेयी की 5 सर्वश्रेष्ठ कविताएं...

जन्मदिन विशेष: अटल बिहारी वाजपेयी की 5 सर्वश्रेष्ठ कविताएं...

क्रिसमस के दिन पूर्व...Editor

क्रिसमस के दिन पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का भी जन्म हुआ। 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में जन्में अटल जी राजनेता होने के साथ एक बड़े कवि भी हैं। अपने काव्य हृदय की वजह से अटल जी देश के प्रधानमंत्री बने। जमीन से उठकर शिखर के आसमान पेर पहुंचने के पीछे अटल जी को काफी संघर्ष करना पड़ा था। अपने इस जीवन संघर्ष को उन्होंने अपनी कविताओं में बड़ी संजीदगी से उतारा है। उनके जन्मदिन के अवसर पर हम अपने काव्य पाठकों के सामने अटल जी की 5 सर्वश्रेष्ठ कविताएं पेश कर रहे हैं। आशा है ये कविताएं आपमें ऊर्जा और आशा का संचार करेंगी।

बेनक़ाब चेहरे हैं, दाग़ बड़े गहरे हैं...
पहली अनुभूति:
गीत नहीं गाता हूं
बेनक़ाब चेहरे हैं,
दाग़ बड़े गहरे हैं
टूटता तिलिस्म आज सच से भय खाता हूँ
गीत नहीं गाता हूं
लगी कुछ ऐसी नज़र
बिखरा शीशे सा शहर
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
पीठ मे छुरी सा चांद
राहू गया रेखा फांद
मुक्ति के क्षणों में बार बार बंध जाता हूं
गीत नहीं गाता हूं
दूसरी अनुभूति:
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात
कोयल की कुहुक रात
प्राची में अरुणिमा की रेख देख पाता हूं
गीत नया गाता हूं
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूंगा,
रार नहीं ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूं
गीत नया गाता हूं
दूध में दरार पड़ गई...
ख़ून क्यों सफ़ेद हो गया?
भेद में अभेद खो गया।
बंट गये शहीद, गीत कट गए,
कलेजे में कटार दड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
खेतों में बारूदी गंध,
टूट गये नानक के छंद
सतलुज सहम उठी, व्यथित सी बितस्ता है।
वसंत से बहार झड़ गई
दूध में दरार पड़ गई।
अपनी ही छाया से बैर,
गले लगने लगे हैं ग़ैर,
ख़ुदकुशी का रास्ता, तुम्हें वतन का वास्ता।
बात बनाएं, बिगड़ गई।
दूध में दरार पड़ गई।
एक बरस बीत गया...
झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया
सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया
पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया
क्या खोया, क्या पाया जग में...
क्या खोया, क्या पाया जग में
मिलते और बिछुड़ते मग में
मुझे किसी से नहीं शिकायत
यद्यपि छला गया पग-पग में
एक दृष्टि बीती पर डालें, यादों की पोटली टटोलें!
पृथ्वी लाखों वर्ष पुरानी
जीवन एक अनन्त कहानी
पर तन की अपनी सीमाएं
यद्यपि सौ शरदों की वाणी
इतना काफ़ी है अंतिम दस्तक पर, खुद दरवाज़ा खोलें!
जन्म-मरण अविरत फेरा
जीवन बंजारों का डेरा
आज यहां, कल कहां कूच है
कौन जानता किधर सवेरा
अंधियारा आकाश असीमित,प्राणों के पंखों को तौलें!
अपने ही मन से कुछ बोलें!
मैंने जन्म नहीं मांगा था...
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करुंगा।
जाने कितनी बार जिया हूं,
जाने कितनी बार मरा हूं।
जन्म मरण के फेरे से मैं,
इतना पहले नहीं डरा हूं।
अन्तहीन अंधियार ज्योति की,
कब तक और तलाश करूंगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूंगा।
बचपन, यौवन और बुढ़ापा,
कुछ दशकों में ख़त्म कहानी।
फिर-फिर जीना, फिर-फिर मरना,
यह मजबूरी या मनमानी?
पूर्व जन्म के पूर्व बसी—
दुनिया का द्वारचार करूंगा।
मैंने जन्म नहीं मांगा था,
किन्तु मरण की मांग करूंगा।
साभार-कविता कोश

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