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शमशेर बहादुर सिंह: कुछ भी देख नहीं मैं पाता! कौन पाप हैं पूर्व-जन्म के...

शमशेर बहादुर सिंह: कुछ भी देख नहीं मैं पाता! कौन पाप हैं पूर्व-जन्म के...

महान कवि शमशेर बहादुर सिंह...Editor

महान कवि शमशेर बहादुर सिंह हिन्दी-साहित्य के एक महत्वपूर्ण स्तंभ हैं, उनके शब्दों की तुकबंदी की लयबद्धता एक संगीत उत्पन्न करती है। वह दूसरा तार सप्तक के संवेदनशील कवि हैं और भावनाओं की गहराई में डूबकर शब्दों के मोती चुनते हैं। पढ़ते हैं इन्हीं शब्द-मोती से गढ़ी गई यह नायाब कविता...

आज हृदय भर-भर आता है,
सारा जीवन रुक-सा जाता;
वह आँखों में छाए जाते
कुछ भी देख नहीं मैं पाता !
कौन पाप हैं पूर्व-जन्म के,
जिनका मुझको फल मिलता है?
मैंने नगर जलाए होंगे...
मैंने नगर जलाए होंगे,
जो मेरा सब तन जलता है !
पथ नदियों के मोड़े होंगे,
देश-देश तरसाया होगा,
विकल सहस्त्र मीन सा तब तो
यह पापी मन पाया होगा !
अनगिनती हृदयों की बस्ती,
मैंने, आह! उजाड़ी होंगी,
तब तो इतनी सूनी मेरे-
प्राणों की फुलवाड़ी होगी!
अपने लघु जीवन में कैसा...
अपने लघु जीवन में कैसा
छवि का निर्दय स्वप्न बसाया,
जो सब कुछ हो स्वप्न गया है,
मुझे बनाकर अपनी छाया !
घेर-घेर लेती है मुझको
कैसी पतझर की सी आहें?
बरसे आंसू का धुँधलापन
रोक रहा है उर की राहें !
कितने करुणा के बादल हैं...
कितने करुणा के बादल हैं
मेरे काल-क्षितिज के बाहर,
जिनकी शीतल गति की छाया
कभी-कभी पड़ती है मुझपर !
उठता सुख से सिहर मरुस्थल
मेरे उर का- दो कण पाकर
उस सुषमा की छाँह-निमिष का;
जिस में अस्फुट-सा आशा-स्वर !
इस प्रकार कितनी आशाएँ
छोड़ गयीं निज शांत प्रतिस्वर,
कितने प्रश्न हो गए उत्तर
मौनह्रदय में ही उठ- उठ कर !
आज न जाने किसको खोकर...
आज न जाने किसको खोकर
धन्य हुए हैं प्राण-पुजारी,
रूकती है तम के चौखट पर
यह जीवन-आरती हमारी !
आदि सत्य के मौन कठिनतम,
सुन्दरता के ध्यान, रूप, लय !
चिर निर्ममता से ढक लो यह
मेरा चिर-आकर्षण का भय !
तुम पाषाण हुए हो सुन्दर !
युग युग तुमको शीश नवाएँ !
आगत के चिर आत्म समर्पण
मानव डर के दीप दिखाएँ !

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