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मुकाम हासिल करने में उत्तराखंड को लग गए 18 साल

मुकाम हासिल करने में उत्तराखंड को लग गए 18 साल

किसी भी क्रिकेटर के लिए दो से...Editor

किसी भी क्रिकेटर के लिए दो से पांच साल बेहद अहम होते हैं, जब वह अपने कॉरियर के चरम पर होता है। इसी फार्म के बूते वह देश की टीम में जगह बनाता है। लेकिन उत्तराखंड के क्रिकेट खिलाड़ियों का हाल ये रहा कि जहां पैदा हुए, जहां से क्रिकेट की ककहरा सीखा, उसी राज्य से खेल नहीं सकते थे। अब सीओए की पहल पर गठित हुई गवर्निंग काउंसिल की वजह से अब आगे से ऐसा नहीं होगा। प्रदेश के खिलाड़ी अपनी जन्मभूमि के लिए खेल सकेंगे। लेकिन उनका क्या जिनका कॅरिअर 'क्रिकेट की सियासत' की भेंट चढ़ गया।

उत्तर प्रदेश से अलग होने के बाद प्रदेश के क्रिकेट खिलाड़ियों को उम्मीद थी कि बीसीसीआई जल्द ही उत्तराखंड क्रिकेट बोर्ड पर मुहर लगा देगा। इससे दो फायदे होंगे, एक तो प्रदेश का नाम होगा, वहीं ज्यादा से ज्यादा खिलाड़ियों को मौके मिलेंगे। लेकिन अलग प्रदेश बनने के बाद राज्य में एक के बाद एक करके क्रिकेट के कई पैरोकार खड़े हो गए। ऐसा नहीं है कि इन्होंने क्रिकेट के लिए काम नहीं किया। काम किया और अच्छा काम किया। लेकिन मान्यता के लिए सामूहिक प्रयास करने के बजाय अलग-अलग होकर प्रयास करते रहे। यही वजह रही कि मामला इतना लंबा खिंचा।

शुरू में दो ही क्रिकेट एसोसिएशन थीं। पहली पीसी वर्मा की देखरेख में यूपी के समय से कार्यरत थी और दूसरी उत्तराखंड बनने के बाद प्रदीप सिंह के नेतृत्व में उत्तरांचल क्रिकेट एसोसिएशन बनी। इसके सचिव चंद्रकांत आर्य बने। उत्तराखंड के साथ ही अलग राज्य बने झारखंड को 2004 में बीसीसीआई से मान्यता मिली। उस समय सीएयू और यूसीए के दोनों पदाधिकारियों को एक होने की शर्त पर बीसीसीआई मान्यता देने को तैयार था। लेकिन ये दोनों ही नहीं माने। इस बीच प्रदेश में दो और क्रिकेट एसोसिएशन पूर्व टेस्ट क्रिकेटर राजेंद्र पाल के नेतृत्व में युनाइटेड क्रिकेट एसोसिएशन और दिव्य नौटियाल की देखरेख में उत्तराखंड एसोसिएशन अस्तित्व में आई।

2008 में बीसीसीआई से मान्यता का एक और प्रस्ताव आया। उस समय चारों को एक होने को कहा गया। लेकिन फिर बात नहीं बनी और मामला ठंडे बस्ते में चला गया। 2010-11 के करीब हलचल फिर तेज हुई और प्रणव पंड्या की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। बीसीसीआई ने इससे उत्तराखंड में मान्यता का मसला हल करने को कहा। अपने पूरे कार्यकाल में यह कमेटी उत्तराखंड नहीं आई।

2016 में बोर्ड ने प्रकाश दीक्षित और पूर्व टेस्ट क्रिकेटर अंशुमान गायकवाड़ के नेतृत्व में एक कमेटी देहरादून भेजी। इसने सभी क्रिकेट एसोसिएशन से बात करके अपनी रिपोर्ट बीसीसीआई को सौंपी। इस रिपोर्ट में एडहॉक कमेटी की सिफारिश की गई थी। उस समय इसके खिलाफ प्रदेश की सभी क्रिकेट एसोसिएशन थी। इस बीच युनाइटेड क्रिकेट एसोसिएशन से पहल करते हुए क्रिकेट के हित में सीएयू के पक्ष में खड़ी हो गई। थोड़ी न नुकुर के बाद उत्तराखंड क्रिकेट एसोसिएशन के दिव्य नौटियाल भी सीएयू के पक्ष में आ गए। प्रदेश सरकार ने भी सीएयू के पक्ष में खड़ी हो गई। इस बीच यूसीए सुप्रीमकोर्ट पहुंच गई और वहां से गेंद सीओए के पाले में डाल दी गई। सीओए ने अपनी ओर से प्रयास करते हुए क्रिकेट के हित में गवर्निंग काउंसिल गठित कर दी।

आखिर वही हुआ जो अमर उजाला ने कहा

अमर उजाला ने 18 दिसंबर 2015 के अंक में 'उत्तराखंड को बीसीसीआई की मान्यता जल्द' शीषर्क से खबर छापी। उस समय बोर्ड के अध्यक्ष रहे अनुराग ठाकुर ने अपनी ओर से इसकी पहल की थी। लेकिन अचानक से उनके अध्यक्ष पद के इस्तीफा देने से मामला फिर खटाई में चला गया। इस बीच बोर्ड की ओर से एक बार फिर सभी एसोसिएशन के एक होने पर मान्यता ले जाने का प्रस्ताव आया। जिस पर बात नहीं बनी।

अमर उजाला ने खबरों के माध्यम से सभी को क्रिकेट के हित में एक होने की बात कही। लेकिन मामला नहीं बना। 2017 में विधानसभा चुनाव में भाजपा सरकार बनी और मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत बने तो अमर उजाला ने भाजपा सरकार के पिछले कार्यकाल (2007-12) का हवाला देते हुए उस दौरान तत्कालीन खेल मंत्री खजान दास के प्रयासों को याद दिलाया। जिसमें उन्होंने अपने स्तर से सभी को एकजुट करने के प्रयास किए थे। लेकिन सरकार का कार्यकाल खत्म होने को था इस वजह से वह प्रयास अमल में नहीं आए।

इस खबर के छपने के कुछ दिनों बाद सीएम ने सभी एसोसिएशनों की बैठक बुलाई। लेकिन मामला दूसरी ओर भटक गया। इस बीच अमर उजाला ने पुंडुचेरी की तर्ज पर सरकार से सीओए को पत्र लिखने की बात करके खबर प्रकाशित की। इस पर सरकार ने देर से ही सही अमल किया। खेल मंत्री अरविंद पांडे भी इस दिशा में फास्ट हुए। एक के बाद एक करके बैठकें शुरू हुईं और मान्यता के पक्ष में माहौल बना। मंत्री ने अपने प्रयास से सीओए से मुलाकात की और प्रदेश में क्रिकेट को मान्यता देने की गुजारिश की।

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