बिहार में महिला मतदाताओं ने बदला चुनावी गणित और एनडीए को दिलाई बड़ी बढ़त
Women voters reshape Bihar’s political map and push NDA toward a historic win

बिहार की सियासत इस वक्त एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां रुझान ही पूरा माहौल बयान कर दे रहे हैं. विधानसभा चुनाव 2025 के ताजा संकेत बता रहे हैं कि एनडीए लगभग दो सौ सीटों के आसपास पहुंच चुका है और महागठबंधन कहीं पीछे रह गया है. यह वही चुनाव था जिसमें विपक्ष नीतीश कुमार की उम्र, सेहत और बार बार बदलते गठबंधन को मुद्दा बनाकर चल रहा था. लेकिन जनता ने किसी और ही दिशा में फैसला दिया. सुशासन और स्थिरता को तरजीह मिली, और महिला मतदाताओं की सक्रियता ने कहानी को नया रंग दिया.
इस चुनाव में मतदान 66.91 फीसदी दर्ज हुआ. दिलचस्प बात यह रही कि महिलाओं ने पुरुषों के मुकाबले लगभग दस फीसदी ज्यादा मतदान किया. जहां पुरुषों की वोटिंग 62.8 फीसदी रही, वहीं महिलाओं ने 71.6 फीसदी मतदान कर प्रभाव दिखाया. यही आंकड़े रुझानों में भी झलकते दिख रहे हैं. एनडीए 190 पर मजबूत दिखाई दे रहा है, महागठबंधन 49 पर अटकता दिख रहा है और बाकी के खाते में चार सीटों के संकेत मिल रहे हैं. अगर यही रुझान नतीजों में बदलते हैं तो बिहार की राजनीति में एक और ऐतिहासिक मोड़ दर्ज हो जाएगा.
अब बात उस गहरे बदलाव की जो जमीन पर महसूस हुआ. महिला मतदाताओं पर नीतीश कुमार का असर नया नहीं है, लेकिन इस बार यह और भी प्रभावी दिखा. 2005 से साइकिल योजना, यूनिफॉर्म सहायता और शराबबंदी ने महिलाओं के बीच एक भरोसा खड़ा किया था. इस चुनाव में मुख्यमंत्री महिला रोजगार योजना का सीधा आर्थिक लाभ, दस हजार रुपये की सहायता और यह पैमाना कि यह सहायता एक करोड़ से ज्यादा महिलाओं तक गई, निर्णायक साबित हुआ. महिला वोटरों ने जातिगत समीकरणों को पीछे छोड़ कर सरकार के किए कामों पर भरोसा जताया.
वेलफेयर योजनाएं भी इस चुनाव का बड़ा आधार रही. रोजगार से जुड़ी मदद, गरीब परिवारों के लिए शुरू की गई योजनाएं और समय से मिलने वाली आर्थिक सहायता ने मतदाताओं को यह एहसास दिया कि मौजूदा व्यवस्थाएं ठोस हैं. विपक्ष के वादों की तुलना में लोगों को अपने हाथ में मिल चुका लाभ ज्यादा भरोसेमंद लगा. यह भी कहा जा सकता है कि जो लहर लोग एंटी इनकंबेंसी कह रहे थे वह आखिरकार प्रो इनकंबेंसी में बदल गई.
जातिगत समीकरणों पर भी इस बार एनडीए की पकड़ मजबूत रही. चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे सहयोगियों के साथ ईबीसी, महादलित और अन्य पिछड़े वर्गों का एक बड़ा हिस्सा एनडीए के साथ जुड़ता गया. साथ ही मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देकर एक संदेश भी दिया गया कि गठबंधन का ढांचा सिर्फ एक दिशा में सीमित नहीं है. इस वजह से विपक्ष का पुराना एमवाई समीकरण कमजोर दिखाई दिया और टैपेस्ट्री की तरह अलग अलग वर्ग एनडीए की तरफ झुक गए.
केंद्र और राज्य की डबल इंजन सरकार का संदेश भी अपनी जगह असर छोड़ गया. प्रधानमंत्री मोदी की रैलियों से बना माहौल, अमित शाह की संगठनात्मक रणनीति और दूसरी तरफ नीतीश कुमार की छवि जिसने बीते दो दशकों में ईमानदारी और स्थिरता का अहसास दिया, इन सबका संयोजन असरदार रहा. कानून व्यवस्था और ‘जंगलराज’ जैसी पुरानी यादों को युवाओं के बीच फिर से जीवित किया गया और यह रणनीति काम करती दिखी.
वोटर लिस्ट अपडेट करने की चुनाव आयोग की पहल ने भी एक नई ऊर्जा दी. नए युवा मतदाताओं का जुड़ना और लगभग 67 फीसदी मतदान तक पहुंचना यह बताता है कि चुनाव सिर्फ उत्साह से नहीं बल्कि सोच समझकर लड़ा और लड़ा गया. यह भी माना जा रहा है कि एनडीए ने इस विस्तारित वोट बैंक को प्रभावी ढंग से जोड़कर एक तरह की संगठित बढ़त हासिल की.
अब आगे की चुनौती बड़ी है. इतनी बड़ी जीत के साथ उम्मीदें भी उतनी ही बढ़ेंगी. रोजगार, बुनियादी ढांचा और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने की जरूरत होगी. भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी है तो सत्ता संतुलन के सवाल उठेंगे, लेकिन अभी के संकेत बताते हैं कि नीतीश कुमार अपनी मजबूती के सहारे मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे.
कुल मिलाकर बिहार ने इस बार जाति से ऊपर उठ कर एक अलग रास्ता चुना. सुशासन, स्थिरता और महिलाओं की बढ़ती ताकत ने पूरे चुनावी माहौल को नई दिशा दी है.
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