गए थे दाह संस्कार के लिए, ढूंढ निकाला ऐतिहासिक खजाना, चौबेपुर के गौरा उपरवार के गंगा तट पर मिली 9वीं सदी की दुर्लभ एकमुखी शिवलिंग मूर्ति
बीएचयू के प्रो. ज्ञानेश्वर चौबे और ग्रामीणों ने गंगा किनारे खोजी प्रतिहार काल की प्राचीन मूर्ति, विशेषज्ञ बोले – यह वाराणसी की शैव परंपरा से जुड़ा अमूल्य साक्ष्य

कभी-कभी इतिहास खुद सामने आ जाता है, बस नजर पहचानने वाली चाहिए। वाराणसी के चौबेपुर क्षेत्र में ऐसा ही हुआ, जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे अपने गांव के कुछ ग्रामीणों के साथ गौरा ऊपरवार के श्मशान घाट पर दाह संस्कार में शामिल होने गए थे। वहां, गंगा के उत्तरी तट पर, उन्हें बलुआ पत्थर से बनी एक दुर्लभ एकमुखी शिवलिंग मूर्ति मिली।

पहली नज़र में साधारण दिखने वाली यह मूर्ति दरअसल कला और इतिहास का बेजोड़ नमूना निकली। भगवान शिव का शांत मुख, जटामुकुट, गोल कुंडल और गले की माला, हर बारीक नक्काशी मानो किसी कुशल शिल्पकार की कहानी कह रही थी। मूर्ति का ऊपरी भाग गोलाकार लिंग रूप में है जबकि आगे की ओर उकेरा गया मुख इसे विशिष्ट बनाता है।
इस खोज में प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे के साथ इलाके के रहने वाले ग्रामीण संतोष, बाले, मोहन, विजयी, अशोक, दिलीप भी शामिल थे

इस खोज की जानकारी मिलते ही प्रमुख पुरातत्वविदों डॉ. सचिन तिवारी, डॉ. राकेश तिवारी और प्रो. वसंत शिंदे ने इसका अध्ययन किया। उन्होंने इसे 9वीं–10वीं सदी के गुरजर–प्रतिहार काल की कला शैली से जोड़ा, जो काशी–सारनाथ परंपरा की झलक दिखाती है।

डॉ. सचिन तिवारी ने बताया, “इस मूर्ति में उस युग की सौम्यता और स्थानीय कलाकारों की बारीकी दोनों स्पष्ट हैं।”
डॉ. राकेश तिवारी ने कहा, “गंगा किनारे ऐसी मूर्तियाँ मिलना बताता है कि यहाँ किसी समय सक्रिय शैव मंदिर या मठ रहा होगा।”
प्रो. वसंत शिंदे के अनुसार, “यह खोज वाराणसी के पुरातात्त्विक परिदृश्य में नई दिशा जोड़ती है और यह मूर्ति स्थानीय शिल्पियों की दक्षता की साक्षी है।”
विशेषज्ञों का कहना है कि यह केवल एक मूर्ति नहीं, बल्कि वाराणसी क्षेत्र की मध्यकालीन शैव परंपरा और गंगा तटीय सभ्यता का ठोस प्रमाण है। प्रो. चौबे ने बताया कि आगे इस स्थल का वैज्ञानिक सर्वेक्षण और संरक्षण किया जाएगा ताकि मूर्ति और आसपास का क्षेत्र अभिलेखित हो सके।