मिथिला की आत्मा से जुड़ा पर्व जुड़-शीतल, परंपरा, प्रकृति और परिवार का सुंदर संगम

भारत की सांस्कृतिक विविधता का सबसे जीवंत रूप उसकी लोक परंपराओं में देखने को मिलता है। उत्तर बिहार की पावन मिथिला भूमि पर मनाया जाने वाला जुड़-शीतल पर्व न केवल मौसम परिवर्तन का प्रतीक है, बल्कि जनजीवन और पर्यावरण से जुड़ा हुआ एक गहरा भावनात्मक उत्सव भी है। यह पर्व वैशाख महीने की शुरुआत में मनाया जाता है और मिथिला का पारंपरिक नववर्ष भी माना जाता है।
इस अवसर पर मिथिला की गलियों में लोकगीतों की मिठास घुल जाती है, घरों में पारंपरिक व्यंजन की खुशबू फैलती है और दिलों में शीतलता का अहसास पनपता है। जुड़-शीतल वास्तव में एक ऐसा पर्व है जो मानवीय रिश्तों, प्रकृति की पूजा और संस्कृति की सजीवता को एक साथ पिरोता है।
जल का महत्व और शीतला देवी की पूजा से जुड़ी लोक आस्था
जुड़-शीतल का मुख्य उद्देश्य है – प्रकृति और शरीर को शीतलता प्रदान करना। इस पर्व में जल को सबसे पवित्र तत्व मानकर उसकी पूजा की जाती है। घरों में रखे गए पानी को तांबे या मिट्टी के बर्तनों में ठंडा कर, उसे शुभ माना जाता है। इस दिन शीतला देवी की आराधना की जाती है, ताकि गर्मियों की तेज लू और बीमारियों से सुरक्षा मिल सके।
गांवों में यह मान्यता है कि इस दिन ठंडा भोजन करने और ठंडी चीजों का सेवन करने से शरीर में शांति और ऊर्जा बनी रहती है। महिलाएं अपने परिवार के लिए व्रत रखती हैं और विशेषकर बच्चों की लंबी उम्र तथा घर की सुख-शांति की प्रार्थना करती हैं।
दो दिवसीय उत्सव: सतुआन और धुरखेल की विशेष परंपराएं
जुड़-शीतल पर्व दो दिनों तक मनाया जाता है। पहले दिन को सतुआन कहा जाता है। इस दिन सत्तू, कच्चे आम की चटनी, दही और गुड़ जैसे ठंडक देने वाले पदार्थों का सेवन किया जाता है। यह भोजन न केवल स्वादिष्ट होता है बल्कि गर्मी से राहत भी देता है।
दूसरे दिन की पहचान धुरखेल से होती है, जिसमें लोग विशेष रूप से मिट्टी से बने रंगों और कीचड़ के माध्यम से एक-दूसरे के साथ मिट्टी की होली खेलते हैं। यह परंपरा प्रकृति से जुड़ाव और आपसी रिश्तों में प्रेम बढ़ाने का प्रतीक मानी जाती है।
जुड़-शीतल: लोक जीवन और पर्यावरण का पर्व
जुड़-शीतल सिर्फ एक पर्व नहीं, बल्कि मिथिला की जीवंत संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। यह हमें यह सिखाता है कि किस प्रकार हमारे त्योहार केवल धार्मिक कृत्य नहीं, बल्कि पर्यावरणीय जागरूकता और सामाजिक एकता के वाहक भी होते हैं। इस पर्व के माध्यम से अगली पीढ़ी को भी अपने मूल्यों, पर्यावरणीय संतुलन और सांस्कृतिक परंपराओं की गहरी समझ मिलती है।
यह लेख/समाचार लोक मान्यताओं और जन स्तुतियों पर आधारित है। पब्लिक खबर इसमें दी गई जानकारी और तथ्यों की सत्यता या संपूर्णता की पुष्टि की नहीं करता है।