बीएचयू व्याख्यान में रूपकुंड रहस्य और ओंगे मूल दोनों पर अहम खुलासे

बीएचयू में हुए व्याख्यान ने रूपकुंड कंकाल रहस्य और ओंगे जनजाति की अफ्रीकी यात्रा पर नई रोशनी डाली। पूरी रिपोर्ट पढ़ें।

बीएचयू व्याख्यान में रूपकुंड रहस्य और ओंगे मूल दोनों पर अहम खुलासे
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वाराणसी. काशी हिंदू विश्वविद्यालय में सोमवार को आयोजित एक विशेष व्याख्यान में भारत के जीनोमिक इतिहास के दो बड़े अध्याय एक साथ उजागर हुए। प्रसिद्ध जेनेटिक विशेषज्ञ डॉ कुमारस्वामी थंगराज ने ओंगे जनजाति की अफ्रीकी यात्रा और रूपकुंड के रहस्यमयी कंकालों पर ताज़ा शोध साझा किया। कार्यक्रम में छात्रों और शोधार्थियों की उत्सुकता देखते ही बन रही थी, क्योंकि दोनों विषयों ने भारत की प्राचीन मानव कथा को एक नया रूप दे दिया।


डॉ थंगराज ने बताया कि अंडमान की ओंगे जनजाति आधुनिक मानव की सबसे पुरानी प्रवासी लहरों में से एक है, जिनके पूर्वज लगभग पैंसठ हजार वर्ष पहले अफ्रीका से निकले थे। उन्होंने कहा कि इनका जीनोटाइप न्यूनतम निएंडरथल प्रभाव दिखाता है, जो सीधी अफ्रीकी उत्पत्ति का संकेत है।


उन्होंने यह भी याद दिलाया कि ओंगे आबादी एक सदी में छह सौ से गिरकर अब केवल एक सौ पैंतीस रह गई है। औपनिवेशिक हिंसा, बीमारियां और बाहरी संपर्क इसका मुख्य कारण रहे। हाल की एक नवजात शिशु की जन्म सूचना ने संख्या को एक सौ छत्तीस तक पहुंचाया, पर स्थिति अभी भी संवेदनशील है।


व्याख्यान का दूसरा बड़ा हिस्सा रूपकुंड झील पर केंद्रित रहा। डॉ थंगराज ने कहा कि उत्तराखंड के चमोली जिले में बर्फबारी के बीच मिले कंकाल एक ही समय के नहीं हैं। उनकी टीम के जीनोमिक अध्ययन ने साबित किया कि यह तीन अलग अलग समूहों के लोग थे, जिनके आने में लगभग एक हजार वर्ष का अंतर है।


पहला समूह सातवीं से नौवीं शताब्दी के दक्षिण एशियाई मूल के लोग थे। उनके कई कंकालों पर गोल गहरे घाव मिले, जिन्हें भारी ओलावृष्टि के दौरान लगी चोटें माना जा रहा है।


दूसरा समूह सत्रहवीं से बीसवीं शताब्दी का था और इन लोगों का जीनोमिक संबंध पूर्वी भूमध्यसागर क्षेत्र यानी क्रेट द्वीप के आस पास पाया गया। शोधकर्ताओं के लिए यह सबसे चौंकाने वाला खुलासा रहा, क्योंकि इतने दूर के लोग हिमालय की इस कठिन जगह तक कैसे पहुंचे, यह अभी भी चर्चा का विषय है। तीसरा मामला दक्षिण पूर्व एशियाई मूल के एक व्यक्ति का था।


रोचक बात यह रही कि कई छात्रों ने ओंगे और रूपकुंड दोनों अध्ययनों में एक समान धागा देखा। दोनों मामलों ने मानव प्रवास की उन राहों का पता दिया जिन्हें इतिहास अक्सर अनदेखा कर देता है।


कार्यक्रम में प्रोफेसर सिंगरवेल, प्रोफेसर एस सी लाखोटिया, प्रोफेसर राजीव रमन, प्रोफेसर ए के सिंह, प्रोफेसर परिमल दास, डॉ चंदना बसु, डॉ ऋचा आर्य, डॉ राघव और डॉ गीता सहित बड़ी संख्या में विद्यार्थी मौजूद थे। संचालन ज्ञान लैब की शोधार्थी देबश्रुति दास ने किया और संयोजन प्रोफेसर ज्ञानेश्वर चौबे ने संभाला।


शोधार्थियों का मानना है कि यह व्याख्यान आगे ओंगे संरक्षण और रूपकुंड क्षेत्र में नए अध्ययन के रास्ते खोल सकता है, क्योंकि दोनों ही विषय भारत के मानव इतिहास को समझने में अनोखा योगदान देते हैं।

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