बिहार: लोकसभा चुनाव में महागठबंधन ने आसान कर दी थी NDA की राह, जानिए कैसे
- In बिहार 21 May 2019 10:28 AM IST
एक्जिट पोल में बिहार में महागठबंधन की बदहाली दिखाई जा रही है। संभव है कि महागठबंधन को अनुमान से अधिक सीटें मिलें, लेकिन इससे कौन इनकार कर सकता है कि राज्य में महागठबंधन निहायत ढीले अंदाज में चुनाव लड़ा। अगर एनडीए की राह आसान होती है तो उसमें महागठबंधन की ढुलमुल रणनीति का बड़ा योगदान होगा।
एनडीए की रणनीति बेहद सधी हुई थी। महागठबंधन अंतिम चरण तक अति आत्मविश्वास में डूबता-उतराता रहा, जबकि उसके सामने भाजपा-जदयू की वह जोड़ी थी, जिसके पास कई चुनावों में कमाल के प्रदर्शन का रिकार्ड है। उससे मुकाबले के लिए जिस स्तर की मजबूत रणनीति की जरूरत थी, उसका अभाव नजर आया।
इसके बावजूद महागठबंधन ने जिस सामाजिक समीकरण की परिकल्पना की थी, वह अगर जमीन पर उतरा होगा तो नतीजे एक्जिट पोल के रूझान पर भारी पड़ सकते हैं।
सीट बंटवारे में किचकिच
फिलहाल महागठबंधन की ढुलमुल रणनीति पर कीजिए। एनडीए को सीटों के बंटवारे और उम्मीदवारों की घोषणा में पहले बढ़त मिल गई थी। महागठबंधन नामांकन की आखिरी तारीख तक उम्मीदवार तय करता रहा। मधुबनी, शिवहर और वाल्मीकिनगर जैसी संभावना वाली सीटों पर उसके उम्मीदवार अंत में तय हुए। सीटों को लेकर इतनी खींचतान हुई कि नीचे तक एकता का संदेश सही समय पर नहीं जा सका।
बूथ प्रबंधन में कमी-कोताही
बूथ प्रबंधन में भी गड़बड़ी सामने आई। महागठबंधन के नेता इस मुगालते में रह गए कि जनता ही उनका चुनाव लड़ देगी। पटना शहरी इलाके में भी कई मतदान केंद्रों से पोलिंग एजेंट नदारद थे। इससे समझा जा सकता है कि सुदूर इलाके का बूथ प्रबंधन कैसा रहा होगा। हां, महागठबंधन के लिए जनता भी चुनाव लड़ रही थी, लेकिन यह जनता खास सामाजिक समूह की थी। वे तमाम लोग अपने स्तर से चुनाव नहीं लड़ रहे थे, जिन्हें महागठबंधन ने अपना मान लिया था।
सामाजिक गोलबंदी की हकीकत
महागठबंधन ने जिस सामाजिक गोलबंदी की कल्पना की थी, वह जमीन पर कितनी साकार हुई, इसके बारे में सही-सही 23 मई को ही कहा जा सकता है। मोटे तौर पर यह गोलबंदी खास इलाके में ही नजर आई। कुछ इलाके को को छोड़ दें तो हरेक क्षेत्र में सामाजिक समूहों का व्यवहार अलग-अलग था। जैसे, मधुबनी में जो समूह तत्परता से भाजपा के लिए काम कर रहा था, वही बगल के दरभंगा में महागठबंधन का पैरोकार बना हुआ था।
ये दोनों क्षेत्र उदाहरण हैं। यह प्रवृत्ति अन्य क्षेत्रों में भी देखी गई।
सहयोगी और सरोकार
खगड़िया में मुकेश सहनी के लोग यदि जी-जान से उनके साथ थे तो वैशाली और मुजफ्फरपुर में उनके लोग दुविधा में थे। वही हाल पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के अपने लोगों का था। दावा किया गया था कि उनकी बिरादरी के लोग महागठबंधन के पक्ष में सौ फीसदी मतदान करेंगे। राज्य के हर हिस्से में उनके लोगों का यही रूझान नहीं देखा गया। महागठबंधन के एक अन्य घटक रालोसपा के मूल समर्थकों का रवैया भी हम और वीआइपी से अलग नहीं था।
अंत तक ढुलमुल
महागठबंधन का निशाना ही गलत लक्ष्य पर था। एनडीए को परास्त करने का प्राथमिक लक्ष्य सीटों की छीनाझपटी में जो उलझा, वह उम्मीदवारों के चयन से लेकर चुनाव प्रचार तक सुलझ नहीं सका। जिनके पास उम्मीदवार नहीं था, उन दलों ने टिकट के लिए जबरदस्त मोल-भाव किया। सीटें मिलीं तब उम्मीदवारों की खोज शुरू हुई। इसमें बहुत अधिक समय खराब हुआ।
विडंबना यह कि इसके बावजूद उसे सभी सीटों के लिए उम्मीदवार तक नहीं मिल पाए। तभी तो उपेंद्र कुशवाहा को दो सीटों पर लड़ना पड़ा। विश्लेषण बताता है कि महागठबंधन के दल पहले आपस में ही लड़े और यह लड़ाई इस हद तक पहुंच गई कि चुनाव मैदान में भी सुलह का दृश्य अपवाद में ही नजर आया।