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गांधी जयंती पर विशेष: लगते तो थे दुबले बापू, थे ताकत के पुतले बापू

गांधी जयंती पर विशेष: लगते तो थे दुबले बापू, थे ताकत के पुतले बापू

करीब एक शताब्दी से अधिक समय हो...Editor

करीब एक शताब्दी से अधिक समय हो गया है, जब महात्मा गांधी हिंदुस्तान के दिलो-दिमाग पर छाए हुए हैं. गांधी जी ने जमीन से खोद-खोदकर हीरे निकाले. सरदार वल्लभभाई को बनाने का श्रेय गांधी को है. राजगोपालाचार्य जी को, राजेंद्र प्रसाद को और नेहरू को गांधी जी ने गढ़ा. सैकड़ों दिग्गज और लाखों सैनिक गांधी जी ने पैदा किए. करोड़ों मुर्दा देश-वासियों में नई जान फूंक दी.

एक लंबे राजनीतिक काल कालखंड में बापू को चुनौती देने वाला कोई नहीं था. गांधी ने ये सब किया सिर्फ सत्य, अहिंसा, तपस्या और त्याग के बल पर. उन्होंने अपने युग में राजनीति के नियम बदल दिए. बापू का व्यक्तित्व ऐसा था कि सभी उनके ओर खिंचे चले आते थे. ऐसे में कवि मन उनकी ओर न रीझा हो, ऐसा कैसे संभव है. हिंदी के कई श्रेष्ठ कवियों ने महात्मा गांधी पर कविताएं लिखीं. यहां ऐसी ही 5 कालजयी कविताएं आपके लिए प्रस्तुत हैं.

1. युगावतार गांधी - सोहनलाल द्विवेदी

चल पड़े जिधर दो डग मग में, चल पड़े कोटि पग उसी ओर

पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि, गड़ गये कोटि दृग उसी ओर

जिसके शिर पर निज धरा हाथ, उसके शिर-रक्षक कोटि हाथ

जिस पर निज मस्तक झुका दिया, झुक गये उसी पर कोटि माथ

हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु! हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!

तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि, हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!

युग बढ़ा तुम्हारी हंसी देख युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख

तुम अचल मेखला बन भू की, खींचते काल पर अमिट रेख.

तुम बोल उठे, युग बोल उठा, तुम मौन बने, युग मौन बना,

कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर युगकर्म जगा, युगधर्म तना.

युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक, युग-संचालक, हे युगाधार!

युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें युग-युग तक युग का नमस्कार!

तुम युग-युग की रूढ़ियाँ तोड़ रचते रहते नित नई सृष्टि,

उठती नवजीवन की नींवें ले नवचेतन की दिव्य-दृष्टि.

धर्माडंबर के खंडहर पर कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त

मानवता का पावन मंदिर निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!

बढ़ते ही जाते दिग्विजयी! गढ़ते तुम अपना रामराज,

आत्माहुति के मणिमाणिक से मढ़ते जननी का स्वर्णताज!

तुम कालचक्र के रक्त सने दशनों को कर से पकड़ सुदृढ़,

मानव को दानव के मुंह से ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़,

पिसती कराहती जगती के प्राणों में भरते अभय दान,

अधमरे देखते हैं तुमको, किसने आकर यह किया त्राण?

दृढ़ चरण, सुदृढ़ करसंपुट से तुम कालचक्र की चाल रोक,

नित महाकाल की छाती पर लिखते करुणा के पुण्य श्लोक!

कंपता असत्य, कंपती मिथ्या, बर्बरता कंपती है थरथर!

कंपते सिंहासन, राजमुकुट कंपते, खिसके आते भू पर,

हैं अस्त्र-शस्त्र कुंठित लुंठित, सेनायें करती गृह-प्रयाण!

रणभेरी तेरी बजती है, उड़ता है तेरा ध्वज निशान!

हे युग-दृष्टा, हे युग-स्रष्टा, पढ़ते कैसा यह मोक्ष-मंत्र?

इस राजतंत्र के खंडहर में उगता अभिनव भारत स्वतंत्र!

2. प्यारे बापू - सियाराम शरण गुप्त

हम सब के थे प्यारे बापू, सारे जग से न्यारे बापू

जगमग-जगमग तारे बापू, भारत के उजियारे बापू

लगते तो थे दुबले बापू, थे ताकत के पुतले बापू

नहीं कभी डरते थे बापू, जो कहते करते थे बापू

सदा सत्य अपनाते बापू, सबको गले लगाते बापू

हम हैं एक सिखाते बापू, सच्ची राह दिखाते बापू

चरखा खादी लाए बापू, हैं आज़ादी लाए बापू

कभी न हिम्मत हारे बापू, आँखों के थे तारे बापू

3. बापू के हत्‍या के चालिस दिन बाद गया - हरिवंशराय बच्चन

बापू के हत्‍या के चालिस दिन बाद गया

मैं दिल्‍ली को, देखने गया उस थल को भी

जिस पर बापू जी गोली खाकर सोख गए,

जो रंग उठा

उनके लोहू

की लाली से.

बिरला-घर के बाएं को है वह लॉन हरा,

प्रार्थना सभा जिस पर बापू की होती थी,

थी एक ओर छोटी सी वेदिका बनी,

जिस पर थे गहरे

लाल रंग के

फूल चढ़े.

उस हरे लॉन के बीच देख उन फूलों को

ऐसा लगता था जैसे बापू का लोहू

अब भी पृथ्‍वी

के ऊपर

ताज़ा ताज़ा है!

सुन पड़े धड़ाके तीन मुझे फिर गोली के

कांपने लगे पांवों के नीचे की धरती,

फिर पीड़ा के स्‍वर में फूटा 'हे राम' शब्‍द,

चीरता हुआ विद्युत सा नभ के स्‍तर पर स्‍तर

कर ध्‍वनित-प्रतिध्‍वनित दिक्-दिगंत बार-बार

मेरे अंतर में पैठ मुझे सालने लगा!......

4. संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से - रामधारी सिंह 'दिनकर'

संसार पूजता जिन्हें तिलक, रोली, फूलों के हारों से

मैं उन्हें पूजता आया हूं बापू! अब तक अंगारों से

अंगार,विभूषण यह उनका विद्युत पीकर जो आते हैं

ऊंघती शिखाओं की लौ में चेतना नई भर जाते हैं.

उनका किरीट जो भंग हुआ करते प्रचंड हुंकारों से

रोशनी छिटकती है जग में जिनके शोणित के धारों से.

झेलते वह्नि के वारों को जो तेजस्वी बन वह्नि प्रखर

सहते हीं नहीं दिया करते विष का प्रचंड विष से उत्तर.

अंगार हार उनका, जिनकी सुन हांक समय रुक जाता है

आदेश जिधर, का देते हैं इतिहास उधर झुक जाता है.

अंगार हार उनका की मृत्यु ही जिनकी आग उगलती है

सदियों तक जिनकी सही हवा के वक्षस्थल पर जलती है.

पर तू इन सबसे परे, देख तुझको अंगार लजाते हैं,

मेरे उद्वेलित-जलित गीत सामने नहीं हों पाते हैं.

तू कालोदधि का महास्तम्भ, आत्मा के नभ का तुंग केतु

बापू! तू मर्त्य, अमर्त्य, स्वर्ग, पृथ्वी, भू, नभ का महा सेतु.

तेरा विराट यह रूप कल्पना पट पर नहीं समाता है.

जितना कुछ कहूं मगर, कहने को शेष बहुत रह जाता है.

लज्जित मेरे अंगार, तिलक माला भी यदि ले आऊं मैं

किस भांति उठूं इतना ऊपर? मस्तक कैसे छू पांऊं मैं.

ग्रीवा तक हाथ न जा सकते, उंगलियां न छू सकती ललाट

वामन की पूजा किस प्रकार, पहुंचे तुम तक मानव, विराट.

5. गांधी के चित्र को देखकर - केदारनाथ अग्रवाल

दुख से दूर पहुंचकर गांधी

सुख से मौन खड़े हो

मरते-खपते इंसानों के

इस भारत में तुम्हीं बड़े हो

जीकर जीवन को अब जीना

नहीं सुलभ है हमको

मरकर जीवन को फिर जीना

सहज सुलभ है तुमको

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