खास है 29 मार्च का दिन, मंगल पांडे और बहादुर शाह जफर को नहीं भूल पाएंगे आप
- In देश 29 March 2019 11:09 AM IST
आजादी की पहली जंग यानि 1857 के विद्रोह के बारे में आपने पढ़ा और सुना होगा। आजादी के लिए भारत की इस पहली अंगड़ाई में कई वीरों ने अपने प्राण न्योछावर कर दिए। ऐसे ही एक वीर थे मंगल पांडे। मंगल पांडे से जुड़ी किस्से कहानियां हम सबने बचपन से ही सुनी हैं। 29 मार्च वही दिन है, जिस दिन मंगल पांडे ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका था।
वह आज का ही दिन था जब बंगाल की बैरकपुर छावनी में 34वीं बंगाल नेटिव इंफेन्टरी के सैनिक मंगल पांडे ने परेड ग्राउंड में दो अंग्रेज अफसरों पर हमला बोल दिया और फिर खुद को भी गोली मारकर घायल कर लिया। इसके बाद 7 अप्रैल 1857 को अंग्रेजों ने मंगल पांडे को फांसी दे दी।
यह भी गौर करने वाली बात है कि स्थानीय जल्लादों ने मंगल पांडेय जैसे भारत मां के वीर सपूत को फांसी देने से मना कर दिया था। इसके बाद कलकात्ता से चार जल्लादों को बुलाकर मंगल पांडे को फांसी दी गई।
अंग्रेजों के खिलाफ मैदान में उतरे मंगल पांडे
मंगल पांडे जब 22 साल के थे तभी वो ईस्ट इंडिया कम्पनी से जुड़ गए थे। मंगल पांडे शुरु से ही फौज में जाने को लेकर हमेशा उत्साहित रहते थे। ईस्ट इंडिया से जुड़ने के बाद सबसे पहले उनकी नियुक्ति अकबरपुर के एक ब्रिगेड में हुई थी।
अंग्रेजों के बीच रह कर धीरे-धीरे उनका मन मिलेट्री सर्विस से भर गया। सर्विस के दौरान एक घटना क्रम ने उनका जीवन बदल दिया। भारत में तब एक नए प्रकार की राइफल लांच हुई थी। राइफल का नाम एनफील्ड था। राइफल का उपयोग आर्मी में किया जाने लगा था। राइफल के कार्टिज पर जानवरों की चर्बी से ग्रीज लगे होने की अफवाह उड़ी थी। कार्टिज में गाय और सुअर की चर्बी लगाई गई थी।
सैनिकों को राइफल के ग्रीज लगी कार्टिज को मुंह से छीलकर हटाना पड़ता था। भारतीय सैनिकों को लगने लगा की अग्रेज उनके साथ धार्मिक भावनाओं से खिलवाड़ कर रहे हैं। तभी मंगल पांडे ने ईस्ट इंडिया की सर्विस से इस्तीफा देकर अंग्रेजों से बदला लेने की सोची, और अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में खुलकर सामने आ गए।
बहादुर शाह जफर से भी जुड़ा है यह दिन
आज का दिन भारत के लिए एक और ऐतिहासिक वजह से महत्वपूर्ण है। यह ऐतिहासिक घटना भी अंग्रेजों से जुड़ी है। साल 1859 में वो 29 मार्च का ही दिन था जब अंग्रेजों ने अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर द्वितीय को देश निकाला दिया था। उन्हें 1857 में आजादी की पहली लड़ाई में भागीदारी का दोषी पाया गया और अंग्रेज सरकार ने उन्हें रंगून भेज दिया। बाद में रंगून में ही उनकी मौत हुई थी।
1857 में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व करने वाले मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर को हार का सामना करना पड़। जिसके बाद 17 अक्टूबर 1858 को बाहदुर शाह जफर मकेंजी नाम के समुद्री जहाज से रंगून भेज दिया गया। इस जहाज में शाही खानदान के 35 लोग सवार थे। उस दौरान कैप्टेन नेल्सन डेविस रंगून जो वर्तमान में यंगून है के इंचार्ज थे। 17 अक्टूबर 1858 को बहादुर शाह जफर को एक गैराज कैद किया गया जहां से वो 7 नवंबर 1862 में अपनी चार साल की कैद के बाद जिंदगी को अलविदा कहते हुए आजाद हो गए। बहादुर शाह जफर ने अपनी मशहुर गजल इसी गैराज में लिखी थी।