भारतीय राजनीति से अपने अंत की तरफ बढ़ रहा वंशवाद
- In राजनीति 25 May 2019 11:54 AM IST
2019 का लोकसभा चुनाव परिणाम इस रूप में ऐतिहासिक है कि भारतीय जनता ने लगभग 48 साल बाद पूर्ण बहुमत की सरकार को दोबारा पूर्ण बहुमत से दिल्ली के सिंहासन पर बिठाया। यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व कौशल पर जनता की पूर्ण आस्था और 2014 के चुनाव के विपरीत एक सकारात्मक वोट है। अन्य चीजों के अलावा इस चुनाव का एक महत्वपूर्ण संदेश भारतीय राजनीति में एक तरह से परिवारवाद की राजनीति के अंत की घोषणा भी है। जीत के बाद अपने विजय-भाषण में मोदी जब अपने संकल्प को दोहराते हैं कि मैं अपने लिए कभी कुछ नहीं करूंगा तो अपने को इसी परिवारवाद से अलग करते हैं। यहां 'अपने लिए' का अर्थ स्वयं मोदी तो हैं ही, साथ ही इसमें उनका परिवार-वंश भी शामिल है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था राजतंत्र या तानाशाही से इस रूप में भिन्न होती है कि राजतंत्र में एक ही परिवार-वंश के लोगों का राज पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है, जबकि लोकतंत्र में जनता लोगों की ताजपोशी करती है। समाजशास्त्रीय शब्दावली में समझें तो अमेरिकी पॉलिटिकोसोशल एंथ्रोपोलॉजिस्ट राल्फ लिंटन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'द स्टडी ऑफ मैन' में बताया है कि दो तरह की सामाजिक- राजनीतिक परिस्थितियां होती है- प्रदत्त परिस्थिति और अर्जित परिस्थिति। प्रदत्त परिस्थिति में व्यक्ति को पद, प्राधिकार और प्रतिष्ठा, जन्म, वंश या जाति आदि के आधार पर प्राप्त होते हैं, न कि गुण-क्षमता और कार्य-निष्पादन के आधार पर तो दूसरी ओर अर्जित परिस्थिति में ये चीजें गुण-क्षमता व कार्य-निष्पादन के आधार पर ही हासिल होती हैं। राल्फ लिंटन यह भी कहते हैं कि प्रदत्त परिस्थिति बंद समाजों जैसे कबीला, राजतंत्र और तानाशाही आदि की विशेषता है, जबकि अर्जित परिस्थिति खुले समाजों अर्थात आधुनिक लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनुकूल है। दुर्भाग्यवश भारत अथवा तीसरी दुनिया के विभिन्न देशों में लोकतंत्र के बावजूद प्रदत्त परिस्थिति हावी है। राजनीति में कुछ परिवारों का मानो एकाधिपत्य चलता है। भारत के संदर्भ में देखें तो इस परिवारवादी या वंशवादी राजनीति की जनक कांग्रेस पार्टी रही है। दुखद है कि कांग्रेस के विरोध में जन्मे दलों में भी इस परिवारवाद के वायरस का संक्रमण हो गया है। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस में नेहरू- गांधी परिवार के वर्चस्व के अतिरिक्त क्षेत्रीय स्तर पर बिहार में लालू यादव अथवा रामविलास पासवान का परिवार, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव या अजित सिंह का परिवार, कर्नाटक में एचडी देवेगौड़ा का परिवार, आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव- चंद्रबाबू नायडू खानदान, तेलंगाना में के चंद्रशेखर परिवार, तमिलनाडु में करुणानिधि परिवार, जम्मू कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, पंजाब में बादल परिवार आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो लोकतंत्र में भी राजतंत्र की याद कराते हैं। इनके यहां पार्टियां एक परिवार प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनी हुई हैं। परिवारवाद की इस दलदली राह पर अब मायावती की बसपा और ममता बनर्जी की टीएमसी भी चल पड़ी है। भारतीय जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियां ही दो प्रमुख दल ऐसे हैं जो परिवारवादी राजनीति से अपेक्षाकृत दूर हैं, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी की समस्या यह है कि वह एक आयातित विचारधारा की गुलाम है और भारतीय समाज ने अब इसे लगभग नकार दिया है।
परिवारवादी राजनीति के कई दुष्परिणाम होते हैं। सबसे पहले ऐसे दलों में नेतृत्व एक परिवार की बपौती होती है। उत्तराधिकारी नेतृत्व के गुण-कौशल से युक्त न भी हो तो भी ताजपोशी उसी की होगी। उदाहरण के लिए पिछली बार जब लालू यादव को जेल जाना पड़ा था तब अनेक सक्षम नेताओं के बावजूद राजद का नेतृत्व लालू ने राबड़ी देवी को सुपुर्द किया था। दूसरा, ऐसे दलों के लिए जनहित- देशहित के मुकाबले परिवारहित अधिक महत्वपूर्ण होता है। यह अनायास नहीं कि इन राजनीतिक परिवारों के चंगुल में फंसकर एक तरफ इस देश या विभिन्न राज्यों की आम जनता आजादी के सात दशक बाद भी गरीबी-बदहाली में जीने के लिए अभिशप्त है। दूसरी तरफ ये राजनीतिक परिवार अपने लिए अकूत धन-संपत्ति जमा करते जा रहे हैं। तीसरा, जनता की आकांक्षाओं को समझने वाले जमीन से उठे सच्चे-सक्षम जननायकों को परिवारवादी पार्टियों में पनपने ही नहीं दिया जाता ताकि वंशवादी नेतृत्व को कोई चुनौती न मिल सके। अंग्रेजी में जिसे एसपिरेशनल पॉलिटिक्स अर्थात आकांक्षी राजनीति कहते हैं उसे इस वंशवाद के पैरों के नीचे कुचल दिया जाता है। एक उदाहरण प्रणब मुखर्जी का ही देखें। कहा जाता है कि इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रणब मुखर्जी ने नेतृत्व के लिए दावा ठोका था, लेकिन परिवारवादी राजनीतिक संस्कृति के हावी होने के कारण प्रणब मुखर्जी को लंबे समय के लिए कांग्रेस से वनवास दे दिया गया। इसी परिवारवादी राजनीतिक संस्कृति के कारण एक समय असम में कांग्रेस के उभरते हुए नेता हेमंत विश्व सरमा ने जब अपने लिए असम की राजनीति में बड़ी भूमिका की मांग की तो उसे इसलिए दरकिनार कर दिया गया कि तत्कालीन मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अपने बेटे गौरव गोगोई को ही उत्तराधिकार सौंपना चाहते थे। चौथा, परिवारवादी राजनीति एक ऐसी दरबारी संस्कृति को जन्म देती है जिसका मुख्य काम चारणों की भांति उस परिवार की सेवा और गुणगान करना है। बदले में उन्हें भी राजसत्ता की मलाई खाने को मिल जाती है।
परिवार की दूसरी पीढ़ी का राजनीति में आना गलत नहीं है, लेकिन राजनीतिक नेतृत्व पर दावा उनके गुण-कौशल और कार्यनिष्पादन के आधार पर हो, न कि जन्मजात अधिकार के रूप में। यह 21वीं सदी के युवाओं और आकांक्षाओं का भारत है जो तकनीकी और ग्लोबल परिस्थितियों के ज्ञान से लैस है, और इसलिए प्रदत्त परिस्थिति अर्थात जन्म-वंश पर आधारित नेतृत्व को चुनौती दे रहा है। अमेठी में राहुल गांधी, लालू की बेटी मीसा, मुफ्ती की बेटी महबूबा, मुलायम की बहू डिंपल, लोकदल के अजीत और जयंत, झामुमो सुप्रीमो शिबू सोरेन, केसीआर की बेटी कविता और चंद्रबाबू नायडू के बेटे नारा लोकेश की चुनावों में हार अथवा अकाली दल का दो सीटों पर सिमट जाना बदलते हुए भारत का संकेत है। लोजपा और शिवसेना जैसे दल मोदी आंधी पर सवार होकर ही जीत पाए हैं। नवीन पटनायक और जगन मोहन की विजय वंशवाद के बजाय वर्षों की कड़ी मेहनत के बूते हासिल हुई है। यह नया भारत है जहां प्रदत परिस्थिति के बजाय गुण-कौशल को ज्यादा महत्व दिया जाने लगा है। पारिवारिक पार्टियों को इसे समझ जाना चाहिए।