जरूर पढ़े अक्षय तृतीया की यह दिल को छू लेने वाली सुदामा और कृष्णा की कथा
- In जीवन-धर्म 3 May 2019 3:16 PM IST
कहते हैं अक्षय तृतीया से जुडी एक ऐसी भी कहानी है जिसे सुनकर आपको आंसू आ जाएंगे. आइए जानते हैं वह कथा जो सुदामा और कृष्णा भगवान से जुडी है.
पौराणिक कथा - अक्षय तृतीया के दिन ही सुदामा अपने बचपन के सखा श्रीकृष्ण से आर्थिक सहायता मांगने गए थे. वह उनके लिए एक पोटली में थोड़े से भुने चावल लेकर गए थे जिसे भगवान ने बेहद चाव से खाया था. लेकिन सुदामा ने हिचक की वजह से कृष्ण जी से अपने लिए मदद नहीं मांगी थी. वह बिना कुछ मांगे ही उनसे विदा लेकर अपने घर लौट गए थे लेकिन वापस पहुंचने पर सुदामा ने देखा कि उनके टूटे-फूटे झोपड़े के स्थान पर एक भव्य महल खड़ा था और उनकी गरीब पत्नी और बच्चे अच्छे वस्त्रों में मिले थे. यह देखकर सुदामा समझ गए कि ये सब श्रीकृष्ण की ही कृपा से हुआ है. यही वजह है कि अक्षय तृतीया पर आज भी साफ मन से दान और पूजा का महत्व गिना जाता है. साथ ही इसे धन-संपत्ति के लाभ से भी जोड़ा जाता है.
कथा इस प्रकार है - एक ब्राह्मणी थी जो बहुत गरीब निर्धन थी. भिक्षा मांग कर जीवन यापन करती थी. एक समय ऐसा आया कि पांच दिन तक उसे भिक्षा नहीं मिली वह प्रति दिन पानी पीकर भगवान का नाम लेकर सो जाती थी. छठवें दिन उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चना मिले. कुटिया पर पहुंचते-पहुंचते रात हो गई. ब्राह्मणी ने सोचा अब यह चने रात में नहीं खाऊंगी प्रात:काल वासुदेव को भोग लगाकर तब खाऊंगी . यह सोचकर ब्राह्मणी ने चनों को कपड़े में बांधकर रख दिएऔर वासुदेव का नाम जपते-जपते सो गई. ब्राह्मणी के सोने के बाद कुछ चोर चोरी करने के लिए उसकी कुटिया मे आ गए. इधर-उधर बहुत ढूंढा चोरों को वह चनों की बंधी पोटली मिल गई चोरों ने समझा इसमे सोने के मोती हैं. इतने में ब्राह्मणी जाग गई और शोर मचाने लगी. गांव के सारे लोग चोरों को पकड़ने के लिए दौड़े. चोर वह पोटली लेकर भागे. पकड़े जाने के डर से सारे चोर सांदीपनी मुनि के आश्रम में छिप गए. (सांदीपनी मुनि का आश्रम में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा शिक्षा ग्रहण कर रहे थे) गुरुमाता को लगा कि कोई आश्रम के अन्दर आया है गुरुमाता देखने के लिए आगे बढीं चोर डर गए और आश्रम से भागे. भागते समय चोरों से वह पोटली वहीं छूट गई. इधर भूख से व्याकुल ब्राह्मणी ने जब जाना कि उसकी चने की पोटली चोर उठा ले गये. तो ब्राह्मणी ने श्राप दे दिया कि मुझ दीनहीन असहाय के जो भी चने खाएगा वह दरिद्र हो जाएगा. उधर प्रात:काल गुरु माता आश्रम में झाडू लगाने लगी झाडू लगाते समय गुरु माता को वही चने की पोटली मिली गुरु माता ने खोल कर देखी तो उसमें चने थे. कान्हा और सुदामा जंगल में लकड़ी लाने जा रहे थे. गुरु माता ने वह चने की पोटली सुदामा जी को दे दी. और कहा बेटा, जब वन में भूख लगे तो दोनों लोग यह चने खा लेना. सुदामा जी जन्मजात ब्रह्मज्ञानी थे. उन्हें ज्ञात हो गया कि यह शापित चने हैं इन्हें कान्हा को किसी सूरत में नहीं खाने देना है.
सुदामा ने सोचा कि चने अगर त्रिभुवनपति श्री कृष्ण को खिला दिए तो सारी सृष्टि दरिद्र हो जाएगी. यह चने स्वयं खा जाऊंगा लेकिन कृष्ण को नही खाने दूंगा और सुदामा जी ने सारे चने खुद खा लिए. चने खाकर दरिद्रता का श्राप सुदामा जी ने स्वयं ले लिया लेकिन अपने मित्र श्री कृष्ण को एक भी दाना चना नहीं दिया. शाप की वजह से फिर कालांतर में सुदामा गरीब ब्राह्मण रहे. अपने बच्चों का पेट भर सके उतने भी सुदामा के पास पैसे नहीं थे. सुदामा की पत्नी ने कहा, हम भले ही भूखे रहें, लेकिन बच्चों का पेट तो भरना चाहिए न ? इतना बोलते-बोलते उसकी आंखों में आंसू आ गए. सुदामा को बहुत दुःख हुआ. उन्होंने कहा, क्या कर सकते हैं ? किसी के पास मांगने थोड़े ही जा सकते है. पत्नी ने सुदामा से कहा, आप कई बार कृष्ण की बात करते हो. आपकी उनके साथ बहुत मित्रता है ऐसा कहते हो. वे तो द्वारका के राजा हैं. वहां क्यों नहीं जाते ? जाइए न !
वहां कुछ भी मांगना नहीं पड़ेगा. सुदामा को पत्नी की बात सही लगी. सुदामा ने द्वारका जाने का तय किया. पत्नी से कहा, ठीक है, मैं कृष्ण के पास जाऊंगा. लेकिन उसके बच्चों के लिए क्या लेकर जाऊं ? सुदामा की पत्नी पड़ोस में से भुने चावल यानी पोहे ले आई. उसे फटे हुए कपडे में बांधकर उसकी पोटली बनाई. सुदामा उस पोटली को लेकर द्वारका जाने के लिए निकल पड़े. द्वारका देखकर सुदामा तो दंग रह गए. पूरी नगरी सोने की थी. लोग बहुत सुखी थे. सुदामा पूछते-पूछते कृष्ण के महल तक पहुंचे. दरबान ने साधू जैसे लगनेवाले सुदामा से पूछा, ओ भाई यहां क्या काम है ?" सुदामा ने जवाब दिया, मुझे कृष्ण से मिलना है. वह मेरा मित्र है. अंदर जाकर कहिए कि सुदामा आपसे मिलने आया है. दरबान को सुदामा के वस्त्र देखकर हंसी आई. उसने जाकर कृष्ण को बताया. सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण खड़े हो गए. और सुदामा से मिलने दौड़े. सभी आश्चर्य से देख रहे थे.. कहां राजा और कहां ये साधू ? कृष्ण सुदामा को महल में ले गए. सांदीपनी ऋषि के गुरुकुल के दिनों की यादें ताज़ा की. सुदामा कृष्ण की समृद्धि देखकर शर्मा गए. सुदामा पोहे की पोटली छुपाने लगे, लेकिन कृष्ण ने खिंच ली. कृष्ण ने उसमें से पोहे निकाले. और खाते हुए बोले, ऐसा अमृत जैसा स्वाद मुझे और किसी में नहीं मिला.
बाद में दोनों खाना खाने बैठे. सोने की थाली में अच्छा भोजन परोसा गया. सुदामा का दिल भर आया. उन्हें याद आया कि घर पर बच्चों को पूरा पेट भर खाना भी नहीं मिलता है. सुदामा वहां दो दिन रहे. वे कृष्ण के पास कुछ मांग नहीं सके. तीसरे दिन वापस घर जाने के लिए निकले. कृष्ण सुदामा के गले लगे और थोड़ी दूर तक छोड़ने गए. घर जाते हुए सुदामा को विचार आया, घर पर पत्नी पूछेगी कि क्या लाए ? तो क्या जवाब दूंगा ? सुदामा घर पहुंचे. वहां उन्हें अपनी झोपड़ी नज़र ही नहीं आई. उतने में ही एक सुंदर घर में से उनकी पत्नी बाहर आई. उसने सुंदर कपड़े पहने थे. पत्नी ने सुदामा से कहा, देखा कृष्ण का प्रताप. हमारी गरीबी चली गई कृष्ण ने हमारे सारे दुःख दूर कर दिए. सुदामा को कृष्ण का प्रेम याद आया. उनकी आंखों में खूशी के आंसू आ गए.
वह दिन अक्षय तृतीया का था तब से प्रति अक्षय तृतीया पर श्रीकृष्ण सुदामा की यह कथा सुनाई जाती है. देखा दोस्तों, कृष्ण और सुदामा का प्रेम यानी सच्चा मित्र प्रेम. तो दोस्तों सच्चे प्रेम में ऊंच या नीच नहीं देखी जाती और न ही अमीरी-गरीबी देखी जाती है. इसीलिए आज इतने युगों के बाद भी दुनिया कृष्ण और सुदामा की दोस्ती को सच्चे मित्र प्रेम के प्रतीक के रूप में याद करती है.