चातुर्मास 2025 आस्था, व्रत और संयम का चार महीने लंबा अध्यात्मिक काल, जानें क्यों नहीं होते शुभ कार्य

हिन्दू धर्म में चातुर्मास का विशेष धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व है। यह वह समय होता है जब आस्था, आत्मसंयम और व्रतों का विशेष रूप से पालन किया जाता है। हर साल आषाढ़ शुक्ल एकादशी को जब भगवान विष्णु क्षीर सागर में योग निद्रा में चले जाते हैं, तभी से चातुर्मास का आरंभ होता है। यह काल कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देवउठनी या देवोत्थान एकादशी तक चलता है। इस अवधि को देव शयन काल कहा जाता है क्योंकि इस दौरान भगवान विष्णु निद्रारत रहते हैं और ब्रह्मांडीय कार्यों से विराम लेते हैं।
शुभ कार्यों पर रोक: विवाह, मुंडन, गृह प्रवेश क्यों नहीं किए जाते?
चातुर्मास के दौरान धार्मिक मान्यता है कि जब स्वयं भगवान विश्राम कर रहे होते हैं, तब कोई भी मांगलिक कार्य करना वर्जित होता है। विवाह, यज्ञोपवीत, गृह प्रवेश, नामकरण, मुंडन जैसे संस्कारों को इस अवधि में टालना श्रेयस्कर माना गया है। क्योंकि यह समय स्वयं को साधना, भक्ति और तपस्या में लीन करने का होता है। कई लोग इन चार महीनों में व्रत, उपवास, सात्विक भोजन और नियम-संयम का पालन करते हैं। ब्रह्मचर्य, संयमित जीवनशैली और आध्यात्मिक साधना को विशेष रूप से अपनाया जाता है।
चार महीने का तप: आहार, व्यवहार और विचारों में भी लाया जाता है बदलाव
चातुर्मास केवल किसी देवता की निद्रा से जुड़ा धार्मिक समय नहीं है, बल्कि यह आत्मशुद्धि का अवसर भी है। इस दौरान अधिकतर लोग मांसाहार, शराब, प्याज, लहसुन जैसे तामसिक आहार से दूर रहते हैं। कुछ भक्त तो अनाज, नमक या विशेष खाद्य पदार्थ भी त्याग देते हैं। इस अवधि में अधिकतर संत और साधु यात्रा नहीं करते बल्कि एक ही स्थान पर निवास कर गहन साधना करते हैं। मान्यता है कि इस दौरान किया गया जप, तप और दान कई गुना पुण्यदायी होता है।
देव जागरण के साथ लौटती है शुभता
चातुर्मास का समापन देवउठनी एकादशी के दिन होता है, जब भगवान विष्णु योगनिद्रा से जागते हैं। यह दिन शुभ कार्यों की पुनः शुरुआत का प्रतीक होता है। इसी दिन से विवाह समारोह, मुंडन और अन्य संस्कार पुनः आरंभ किए जाते हैं। इस दिन तुलसी विवाह भी आयोजित किया जाता है, जो अत्यंत पुण्यदायक माना गया है।
चातुर्मास एक आंतरिक यात्रा है
चातुर्मास केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं बल्कि आत्मिक उन्नति का अवसर है। यह समय स्वयं को संयमित करने, भीतर झांकने और आचार-विचार को परिष्कृत करने का होता है। भगवान की निद्रा के इन चार महीनों में भक्तजन अपने भीतर जागरण करते हैं। यह काल भक्त और ईश्वर के बीच मौन संवाद का अवसर होता है, जिसमें समर्पण, तप और भक्ति का संगम होता है।
यह लेख/समाचार लोक मान्यताओं और जन स्तुतियों पर आधारित है। पब्लिक खबर इसमें दी गई जानकारी और तथ्यों की सत्यता या संपूर्णता की पुष्टि की नहीं करता है।